यूपी पुलिस के सिपाहियों और दरोगाओं को गृह जिले में क्यों नहीं मिलती तैनाती ???? क्लिक करे और जाने वजह
पुलिस व्यवस्था में सुधार पर विचार होता ही रहता है. यह विचार चालीस साल से हो रहा है. ये विचार अभी भी हो ही रहा है. इसी बीच उत्तर प्रदेश में पुलिस वालों की ट्रांसफर पोस्टिंग (Transfer posting) को लेकर एक झंझट पैदा हुआ है. प्रदेश में कांस्टेबल (Constable) और दरोगा ट्रांसफर के एक नियम से परेशान हैं. ज्यादातर लोग इसे बार्डर स्कीम (Border scheme) के नाम से भी पुकारते हैं. नियम यह है कि कॉन्स्टेबल और दरोगा के अपने जिले या अपने पड़ोसी जिले में तैनाती पर पाबंदी है. इससे वे अपने परिवारों से बहुत दूर रहते हैं. ऐसे में कहा जा रहा है कि इस कारण वे मानसिक रूप से बहुत परेशान रहते हैं. कहा यह भी जाने लगा है कि वे इतने परेशान रहते हैं कि उनमें मनोस्नायु विकृति और मनोविकृति तक पैदा होने लगी है. भले ही यह प्रदेश के तीन लाख पुलिसवालों की ही बात हो लेकिन कानून व्यवस्था के काम में लगे इन लाखों पुलिसकर्मियों की समस्या को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता. शायद इसीलिए इस समस्या ने मीडिया, पुलिस के सेवानिवृत्त (Retired) व मौजूदा अफसरों और अपराधशास्त्रियों का ध्यान खींचा है. पुलिस प्रशासन की यह समस्या छोटी बड़ी कैसी भी हो, लेकिन इसके बहाने पुलिस सुधारों की कालजयी चर्चा को भी दोहराया जा सकता है.
गैरपेशेवर तर्क-वितर्क से तय नहीं हो पाता
पुलिसवालों को उनके जिले या पड़ोसी जिले में तैनाती दी जाए या नहीं? इस बारे में अलग-अलग पक्षों के अलग-अलग तर्क हैं. स्वाभाविक है कि अगर जिले या पड़ोसी जिले में तैनाती के कुछ नुकसान होने का तर्क न दिया जाता यह नियम बनता ही नहीं. क्या यह मसला पुलिस को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रबंधन के नुक्ते का है? या भ्रष्टाचार के अंदेशे का है? या पुलिस कर्मियों से एकाग्र होकर काम करवाने का है? या पुलिस बल की कमी के कारण उनसे ज्यादा से ज्यादा काम लेने का है? इन सवालों की ज्यादा पड़ताल हो नहीं पा रही है. लेकिन इतना तय है कि पुलिसवाले इस नियम को बदलने का दबाव बना रहे हैं. पिछले कुछ दिनों की हलचल पर गौर करें तो पुलिस प्रशासन के अनुभवी और सेवानिवृत्त अधिकारी भी इस नियम को बदलने के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं. हालांकि, मौजूदा प्रशासन और राजनीतिक सत्ता की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं लेकिन वे साफ-साफ पता नहीं चलतीं. इस तरह के प्रशासनिक मसलों में यह दिक्कत आती ही है. इसीलिए शोध सर्वेक्षण कराए जाते हैं और विशेषज्ञ कमेटियां और आयोग बनाए जाते हैं.
पुलिस सुधारों की इतनी लंबी कवायद
पुलिस सुधारों को लेकर समय-समय पर कवायद कम नहीं हुई हैं. सन 1979 में बाकायदा एक पुलिस आयोग ही बना था. उसने तीन साल के भीतर आठ रिपोर्ट दीं. यह बताने में किसी को भी संकोच नहीं करना चाहिए कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशें ज्यादातर राज्यों ने लागू नहीं की. पंद्रह साल बाद पुलिस के ही दो अधिकारियों ने 1996 में आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया. भले ही दस साल और लग गए. प्रदेश सरकारों ने तरह-तरह से आनाकानी और टालमटोल की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फिर से निर्देश दिए कि राज्यों को पुलिस सुधार के लिए ये काम करने ही पड़ेंगे.
सात निर्देश दिए थे सुप्रीमकोर्ट ने
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सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में दिए अपने फैसले में सात दिशा निर्देश दिए थे. अदालती निर्देश बिल्कुल साफ- साफ थे. ये निर्देश देश के सभी राज्यों की समूची पुलिस व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव को सुनिश्चित करने वाले माने गए थे. तब तक यानी 1979 से लेकर 2006 तक 22 साल गुजर चुके थे. यानी तसल्ली और तफ्सील से खूब सोच विचार हो चुका था. हर नजरिए से जांचा परखा गया था. अदालती निर्देश भी हो चुके थे. लेकिन तब भी ज्यादातर दिशा निर्देश पालन में नहीं आ पाए. यहां तक कि कुछ साल बाद सुप्रीम कोर्ट को कई राज्यों को लताड़ लगानी पड़ी. कई राज्यों ने दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए समय भी मांगा. लेकिन उस दौरान भी अदालत ने कहा कि सात में से तीन निर्देशों पर तो पुनर्विचार तक नहीं हो सकता. इन तीन दिशा निर्देशों में एक निर्देश, जिसे पांचवां निर्देश कहते हैं वह पुलिसवालों के ट्रांसफर- पोस्टिंग के बारे में एक निश्चित व्यवस्था बनाने का ही था.
सुप्रीमकोर्ट के पांचवें निर्देश में था उपाय
अगर उप्र पुलिस में पुलिसवालों की तैनाती को लेकर यह समस्या फिर उठ खड़ी हुई है तो उस पांचवें दिशा निर्देश को क्यों याद नहीं किया जाना चाहिए? अदालत के उस पांचवें निर्देश में राज्यों को पुलिस एस्टेब्लिशमेंट बोर्ड यानी पीईबी बनाने का निर्देश दिया गया था. साफ-साफ कहा गया था कि इस बोर्ड में पुलिस महानिदेशक और चार वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहेंगे. यह बोर्ड डीएसपी और उनसे नीचे के पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर पोस्टिंग और सेवा संबंधी मामले तय करेगा. डीएसपी से ऊपर के अफसरों से संबंधित ऐसे मामलों में वह बोर्ड प्रदेश सरकार को सिफारिश भेजेगा. प्रदेशों में पुलिस की कार्यप्रणाली की समीक्षा का काम भी इसी बोर्ड के जरिए किए जाने का निर्देश दिया गया था.
अभी साफ-साफ पता नहीं है कि उप्र में पीईबी के गठन का काम किस रूप में हो पाया है? या नहीं हो रहा है? लेकिन पिछले साल ही काॅमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनीशिएटिव की रिपोर्ट से पता चला था कि देश में आंध्र प्रदेश के अलावा कोई भी प्रदेश नही है जहां पीइबी को उस रूप में गठित किया गया हो जैसा रूप सुप्रीमकोर्ट ने निर्देशित किया था. जाहिर है कि अगर सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश हूबहू लागू किया जाता तो पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर को लेकर एक पुख्ता व्यवस्था बन चुकी होती. उप्र में अदालत से निर्देशित रूप वाला पीईबी होता तो कम से कम उप्र में गृहजिले या पड़ोसी जिले में तैनाती जैसे मसले के लिए बहस इतनी लंबी न खिंचती. उस बोर्ड के किसी भी फैसले को आसानी से समझाया जा सकता था कि वह अदातली निर्देश के हिसाब से है.
दिशानिर्देशों से शिकायत बनती नहीं थी
गौर करने की बात यह है कि अदालत ने ऐसा निर्देश नहीं दिया था जिसे कार्यपालिका के काम में दखलंदाजी कहा जा सके. बल्कि अदालत ने पुलिस विभाग के शीर्ष अधिकारियों का एक समूह बनाने की बात कही थी. लेकिन आज तक नहीं पता कि इस तरह के निर्देशों को फौरन ही मानने में आखिर अड़चन कहां है? हो सकता है कि कार्यपालिका और विधायिका के प्रभुत्व का कोई मसला हो. बहरहाल इतना जरूर कहा जा सकता है कि पुलिस सुधारों को लेकर आयोग की सिफारिशें और शीर्ष अदालत के ज्यादातर निर्देश आज तक ईमानदारी से लागू नहीं हो पा रहे हैं.
मसला पुलिसवालों के मनोस्वास्थ्य का
रही बात उप्र में गृहजिले या पड़ोसी जिले में तैनाती पर पाबंदी के कारण पुलिसकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ने की तो हाल फिलहाल इन दोनों के बीच सहसंबंध स्थापित करने के लिए विश्वसनीय अध्ययन उपलब्ध नहीं है. ऐसे अध्ययनों की औपचारिक व्यवस्था तक नहीं बन पाई है. हां, कुछ फुटकर रिपोर्ट और पर्यवेक्षण जरूर बताए जाते हैं जिनके आधार पर कहा जा रहा है कि उप्र के पुलिसकर्मी भारी दबाव में रहते हैं. कुछ हफ्ते़ पहले ही न्यूज़ 18 के प्रदेश चैनल ने उप्र में पुलिसकर्मियों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति पर एक कार्यक्रम किया था. इधर दो रोज़ पहले जिले या पड़ोसी जिले में तैनाती को लेकर टीवी चैनल ने फिर एक टीवी डिबेट आयोजित की. जानकारों की राय सुनकर लगता है कि उप्र पुलिस की कार्यप्रणाली में बदलाव या सुधार की फौरी जरूरत दिख रही है. अगर बदलाव या सुधार का काम पेचीदा और वक़्त के लिहाज से फिलहाल ज्यादा खर्चीला हो तो कम से कम राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों और सुप्रीमकोर्ट के दिशा निर्देशों को पूरीतौर पर लागू करने में तो बिल्कुल भी अड़चन नहीं आनी चाहिए.
पुलिस व्यवस्था में सुधार पर विचार होता ही रहता है. यह विचार चालीस साल से हो रहा है. ये विचार अभी भी हो ही रहा है. इसी बीच उत्तर प्रदेश में पुलिस वालों की ट्रांसफर पोस्टिंग (Transfer posting) को लेकर एक झंझट पैदा हुआ है. प्रदेश में कांस्टेबल (Constable) और दरोगा ट्रांसफर के एक नियम से परेशान हैं. ज्यादातर लोग इसे बार्डर स्कीम (Border scheme) के नाम से भी पुकारते हैं. नियम यह है कि कॉन्स्टेबल और दरोगा के अपने जिले या अपने पड़ोसी जिले में तैनाती पर पाबंदी है. इससे वे अपने परिवारों से बहुत दूर रहते हैं. ऐसे में कहा जा रहा है कि इस कारण वे मानसिक रूप से बहुत परेशान रहते हैं. कहा यह भी जाने लगा है कि वे इतने परेशान रहते हैं कि उनमें मनोस्नायु विकृति और मनोविकृति तक पैदा होने लगी है. भले ही यह प्रदेश के तीन लाख पुलिसवालों की ही बात हो लेकिन कानून व्यवस्था के काम में लगे इन लाखों पुलिसकर्मियों की समस्या को यूं ही नहीं छोड़ा जा सकता. शायद इसीलिए इस समस्या ने मीडिया, पुलिस के सेवानिवृत्त (Retired) व मौजूदा अफसरों और अपराधशास्त्रियों का ध्यान खींचा है. पुलिस प्रशासन की यह समस्या छोटी बड़ी कैसी भी हो, लेकिन इसके बहाने पुलिस सुधारों की कालजयी चर्चा को भी दोहराया जा सकता है.
गैरपेशेवर तर्क-वितर्क से तय नहीं हो पाता
पुलिसवालों को उनके जिले या पड़ोसी जिले में तैनाती दी जाए या नहीं? इस बारे में अलग-अलग पक्षों के अलग-अलग तर्क हैं. स्वाभाविक है कि अगर जिले या पड़ोसी जिले में तैनाती के कुछ नुकसान होने का तर्क न दिया जाता यह नियम बनता ही नहीं. क्या यह मसला पुलिस को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रबंधन के नुक्ते का है? या भ्रष्टाचार के अंदेशे का है? या पुलिस कर्मियों से एकाग्र होकर काम करवाने का है? या पुलिस बल की कमी के कारण उनसे ज्यादा से ज्यादा काम लेने का है? इन सवालों की ज्यादा पड़ताल हो नहीं पा रही है. लेकिन इतना तय है कि पुलिसवाले इस नियम को बदलने का दबाव बना रहे हैं. पिछले कुछ दिनों की हलचल पर गौर करें तो पुलिस प्रशासन के अनुभवी और सेवानिवृत्त अधिकारी भी इस नियम को बदलने के पक्ष में दिखाई दे रहे हैं. हालांकि, मौजूदा प्रशासन और राजनीतिक सत्ता की अपनी मजबूरियां हो सकती हैं लेकिन वे साफ-साफ पता नहीं चलतीं. इस तरह के प्रशासनिक मसलों में यह दिक्कत आती ही है. इसीलिए शोध सर्वेक्षण कराए जाते हैं और विशेषज्ञ कमेटियां और आयोग बनाए जाते हैं.
पुलिस सुधारों की इतनी लंबी कवायद
पुलिस सुधारों को लेकर समय-समय पर कवायद कम नहीं हुई हैं. सन 1979 में बाकायदा एक पुलिस आयोग ही बना था. उसने तीन साल के भीतर आठ रिपोर्ट दीं. यह बताने में किसी को भी संकोच नहीं करना चाहिए कि राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशें ज्यादातर राज्यों ने लागू नहीं की. पंद्रह साल बाद पुलिस के ही दो अधिकारियों ने 1996 में आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने के लिए सुप्रीमकोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया. भले ही दस साल और लग गए. प्रदेश सरकारों ने तरह-तरह से आनाकानी और टालमटोल की. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने फिर से निर्देश दिए कि राज्यों को पुलिस सुधार के लिए ये काम करने ही पड़ेंगे.
सात निर्देश दिए थे सुप्रीमकोर्ट ने
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सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में दिए अपने फैसले में सात दिशा निर्देश दिए थे. अदालती निर्देश बिल्कुल साफ- साफ थे. ये निर्देश देश के सभी राज्यों की समूची पुलिस व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव को सुनिश्चित करने वाले माने गए थे. तब तक यानी 1979 से लेकर 2006 तक 22 साल गुजर चुके थे. यानी तसल्ली और तफ्सील से खूब सोच विचार हो चुका था. हर नजरिए से जांचा परखा गया था. अदालती निर्देश भी हो चुके थे. लेकिन तब भी ज्यादातर दिशा निर्देश पालन में नहीं आ पाए. यहां तक कि कुछ साल बाद सुप्रीम कोर्ट को कई राज्यों को लताड़ लगानी पड़ी. कई राज्यों ने दिशानिर्देशों को लागू करने के लिए समय भी मांगा. लेकिन उस दौरान भी अदालत ने कहा कि सात में से तीन निर्देशों पर तो पुनर्विचार तक नहीं हो सकता. इन तीन दिशा निर्देशों में एक निर्देश, जिसे पांचवां निर्देश कहते हैं वह पुलिसवालों के ट्रांसफर- पोस्टिंग के बारे में एक निश्चित व्यवस्था बनाने का ही था.
सुप्रीमकोर्ट के पांचवें निर्देश में था उपाय
अगर उप्र पुलिस में पुलिसवालों की तैनाती को लेकर यह समस्या फिर उठ खड़ी हुई है तो उस पांचवें दिशा निर्देश को क्यों याद नहीं किया जाना चाहिए? अदालत के उस पांचवें निर्देश में राज्यों को पुलिस एस्टेब्लिशमेंट बोर्ड यानी पीईबी बनाने का निर्देश दिया गया था. साफ-साफ कहा गया था कि इस बोर्ड में पुलिस महानिदेशक और चार वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रहेंगे. यह बोर्ड डीएसपी और उनसे नीचे के पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर पोस्टिंग और सेवा संबंधी मामले तय करेगा. डीएसपी से ऊपर के अफसरों से संबंधित ऐसे मामलों में वह बोर्ड प्रदेश सरकार को सिफारिश भेजेगा. प्रदेशों में पुलिस की कार्यप्रणाली की समीक्षा का काम भी इसी बोर्ड के जरिए किए जाने का निर्देश दिया गया था.
अभी साफ-साफ पता नहीं है कि उप्र में पीईबी के गठन का काम किस रूप में हो पाया है? या नहीं हो रहा है? लेकिन पिछले साल ही काॅमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनीशिएटिव की रिपोर्ट से पता चला था कि देश में आंध्र प्रदेश के अलावा कोई भी प्रदेश नही है जहां पीइबी को उस रूप में गठित किया गया हो जैसा रूप सुप्रीमकोर्ट ने निर्देशित किया था. जाहिर है कि अगर सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश हूबहू लागू किया जाता तो पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर को लेकर एक पुख्ता व्यवस्था बन चुकी होती. उप्र में अदालत से निर्देशित रूप वाला पीईबी होता तो कम से कम उप्र में गृहजिले या पड़ोसी जिले में तैनाती जैसे मसले के लिए बहस इतनी लंबी न खिंचती. उस बोर्ड के किसी भी फैसले को आसानी से समझाया जा सकता था कि वह अदातली निर्देश के हिसाब से है.
दिशानिर्देशों से शिकायत बनती नहीं थी
गौर करने की बात यह है कि अदालत ने ऐसा निर्देश नहीं दिया था जिसे कार्यपालिका के काम में दखलंदाजी कहा जा सके. बल्कि अदालत ने पुलिस विभाग के शीर्ष अधिकारियों का एक समूह बनाने की बात कही थी. लेकिन आज तक नहीं पता कि इस तरह के निर्देशों को फौरन ही मानने में आखिर अड़चन कहां है? हो सकता है कि कार्यपालिका और विधायिका के प्रभुत्व का कोई मसला हो. बहरहाल इतना जरूर कहा जा सकता है कि पुलिस सुधारों को लेकर आयोग की सिफारिशें और शीर्ष अदालत के ज्यादातर निर्देश आज तक ईमानदारी से लागू नहीं हो पा रहे हैं.
मसला पुलिसवालों के मनोस्वास्थ्य का
रही बात उप्र में गृहजिले या पड़ोसी जिले में तैनाती पर पाबंदी के कारण पुलिसकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ने की तो हाल फिलहाल इन दोनों के बीच सहसंबंध स्थापित करने के लिए विश्वसनीय अध्ययन उपलब्ध नहीं है. ऐसे अध्ययनों की औपचारिक व्यवस्था तक नहीं बन पाई है. हां, कुछ फुटकर रिपोर्ट और पर्यवेक्षण जरूर बताए जाते हैं जिनके आधार पर कहा जा रहा है कि उप्र के पुलिसकर्मी भारी दबाव में रहते हैं. कुछ हफ्ते़ पहले ही न्यूज़ 18 के प्रदेश चैनल ने उप्र में पुलिसकर्मियों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति पर एक कार्यक्रम किया था. इधर दो रोज़ पहले जिले या पड़ोसी जिले में तैनाती को लेकर टीवी चैनल ने फिर एक टीवी डिबेट आयोजित की. जानकारों की राय सुनकर लगता है कि उप्र पुलिस की कार्यप्रणाली में बदलाव या सुधार की फौरी जरूरत दिख रही है. अगर बदलाव या सुधार का काम पेचीदा और वक़्त के लिहाज से फिलहाल ज्यादा खर्चीला हो तो कम से कम राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों और सुप्रीमकोर्ट के दिशा निर्देशों को पूरीतौर पर लागू करने में तो बिल्कुल भी अड़चन नहीं आनी चाहिए.